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महिलाओं ने की पुत्र जितिया व्रत, पुत्र के लिए मांगी वरदान

महिलाओं ने की पुत्र जितिया व्रत, पुत्र के लिए मांगी वरदान

 



निखिल राज अनुमंडल ब्यूरों चीफ रक्सौल /शुक्रवार को शहर की महिलाएं अपने पुत्र के लिए जितिया व्रत रख अपने पुत्र की लंबी उम्र की प्रार्थना की। माताएं अपनी संतान की दीर्घायु के लिए रखती हैं। यह ए‍क निर्जला व्रत है जो कि आश्विन मास के कृष्‍ण पक्ष की अष्‍टमी को रखा जाता है। मान्‍यता है कि इस व्रत को पूरी श्रद्धा से करने और जितिया व्रत की कथा को पढ़ने और सुनने वाली महिलाओं के बच्‍चे खुशहाल होते हैं और उनकी आयु लंबी होती है। मान्यता के अनुसार एक बार नैमिषारण्य के निवासी ऋषियों ने संसार के कल्याणार्थ सूतजी से पूछा, 'हे सूत ! कराल कलिकाल में लोगों के बालक किस तरह दीर्घायु होंगे सो कहिए?' सूतजी बोले- जब द्वापर का अन्त और कलियुग का आरम्भ था, उसी समय बहुत-सी शोकाकुल स्त्रियों ने आपस में सलाह की-कि क्या इस कलियुग में माता के जीवित रहते पुत्र मर जाएंगे? जब वे आपस में कुछ निर्णय नहीं कर सकीं तब गौतमजी के पास पूछने के लिए गईं। जब उनके पास पहुंचीं, तो उस समय गौतमजी आनंद के साथ बैठे थे। उनके सामने जाकर उन्होंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। तदनन्तर स्त्रियों ने पूछा-'हे प्रभु! इस कलियुग में लोगों के पुत्र किस तरह जीवित रहेंगे? इसके लिए कोई व्रत या तप हो तो कृपा करके बताइए'। इस तरह उनकी बात सुनकर गौतमजी बोले-'आपसे मैं वही बात कहूंगा, जो मैंने पहले से सुन रखा है'। गौतमजी ने कहा- जब महाभारत-युद्ध का अन्त हो गया और द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के द्वारा अपने बेटों को मरा देखकर सब पाण्डव बड़े दुःखी हुए तो पुत्र के शोक से व्याकुल होकर द्रौपदी अपनी सखियों के साथ ब्राह्मण-श्रेष्ठ धौम्य के पास गईं और उसने धौम्य से कहा - 'हे विप्रेन्द्र ! कौन-सा उपाय करने से बच्चे दीर्घायु हो सकते हैं, कृपा करके ठीक-ठीक कहिए। धौम्य बोले- सत्ययुग में सत्यवचन बोलने वाला, सत्याचरण करने वाला, समदर्शी जीमूतवाहन नामक एक राजा था। एक बार वह अपनी स्त्री के साथ अपनी ससुराल गया और वहीं रहने लगा। एक दिन आधी रात के समय पुत्र के शोक से व्याकुल कोई स्त्री रोने लगी, क्योंकि वह अपने बेटे के दर्शन से निराश हो चुकी थी-उसका पुत्र मर चुका था।। वह रोती हुई कहती थी- 'हाय, मुझ बूढ़ी माता के सामने मेरा बेटा मरा जा रहा है।' उसका रुंदन सुनकर राजा जीमूतवाहन का तो मानों हृदय विदीर्ण हो गया। वह तत्काल उस स्त्री के पास गया और उससे पूछा- 'तुम्हारा बेटा कैसे मरा है?' बूढ़ी ने कहा-'गरुड़ प्रतिदिन आकर गांव के लड़कों को खा जाता है'।।इस पर दयालु राजा ने कहा-'माता! अब तुम रोओ मत। आनंद से बैठो-मैं तुम्हारे बच्चे को बचाने का यत्न करता हूं।' ऐसा कहकर राजा उस स्थान पर गया, जहां गरुड़ आकर प्रतिदिन मांस खाया करता था। उसी समय गरुड़ भी उस पर टूट पड़ा और मांस खाने लगा। जब अतिशय तेजस्वी गरुड़ ने राजा का बायां अंग खा लिया तो झटपट राजा ने अपना दाहिना अंग फेरकर गरुड़ के सामने कर दिया। यह देखकर गरुड़जी ने कहा-'तुम कोई देवता हो? कौन हो? तुम मनुष्य तो नहीं जान पड़ते। अच्छा, अपना जन्म और कुल बताओ'। पीड़ा से व्याकुल मनवाले राजा ने कहा-'हे पक्षीराज ! इस तरह के प्रश्न करना व्यर्थ है, तुम अपनी इच्छा भरके मेरा मांस खाओ'। यह सुनकर गरुड़ रुक गए और बड़े आदर से राजा के जन्म और कुल की बात पूछने लगे।

राजा ने कहा- 'मेरी माता का नाम है, शैव्या और मेरे पिता का नाम शालिवाहन है। सूर्यवंश में मेरा जन्म हुआ है और जीमूतवाहन मेरा नाम है'। राजा की दयालुता देखकर गरुड़ ने कहा-'हे महाभाग ! तुम्हारे मन में जो अभिलाषा हो वह वर मांगो'। राजा ने कहा-' हे पक्षीराज ! यदि आप मुझे वर दे रहे हैं तो वर दीजिए कि, आपने अब तक जिन प्राणियों को खाया है, वे सब जीवित हो जाएं। हे स्वामिन्! अबसे आप यहां बालकों को न खाए और कोई ऐसा उपाय करें कि जहां जो उत्पन्न हों वे लोग बहुत दिनों तक जीवित रहें। धौम्य ने कहा कि, पक्षीराज गरुड़ राजा को वरदान देकर स्वयं अमृत लाने के लिए नागलोक चले गए। वहां से अमृत लाकर उन्होंने उन मरे मनुष्यों की हड्डियों पर बरसाया। ऐसा करने से सब लोग जीवित हो गए, जिनको कि पहले गरुड़ ने खाया था। राजा के त्याग और गरुड़ की कृपा से वहां वालों का बहुत कष्ट दूर हो गया। उस समय राजा के शरीर की शोभा दूनी हो गई थी। राजा की दयालुता देखकर गरुड़ ने फिर कहा, 'मैं संसार के कल्याणार्थ एक और वरदान दूंगा। आज आश्विन कृष्ण सप्तमी से रहित शुभ अष्टमी तिथि है। आज ही तुमने यहां की प्रजा को जीवन दान दिया है। हे वत्स! अबसे यह दिन ब्रह्मभाव हो गया है। जो मूर्तिभेद से विविध नामों से विख्यात है वही त्रैलोक्य से पूजित दुर्गा अमृत प्राप्त करने के अर्थ में जीवित्पुत्रिका कहलाई हैं। सो इस तिथि को जो स्त्रियां उस जीवित्पुत्रिका की और कुश की आकृति बनाकर तुम्हारी पूजा करेंगी तो दिनों-दिन उनका सौभाग्य बढ़ेगा और वंश की भी वृद्धि होती रहेगी। हे महाभाग ! इस विषय में विचार करने की भी आवश्यकता नहीं है। हे राजन् ! सप्तमी से रहित और उदयातिथि की अष्टमी को व्रत करें, यानी सप्तमी विद्ध अष्टमी जिस दिन हो उस दिन व्रत न कर शुद्ध अष्टमी को व्रत करें और नवमी में पारण करें। यदि इस पर ध्यान न दिया गया तो फल नष्ट हो ही जाएगा और सौभाग्य तो अवश्य नष्ट हो जाएगा। जीमूतवाहन को इस तरह का वरदान देकर गरुड़ वैकुण्ठ धाम को चले गए और राजा भी अपनी पत्नी के साथ अपने नगर को वापस चले आए।

धौम्य द्रौपदी से कहते हैं- 'हे देवि! मैंने यह अतिशय दुर्लभ व्रत तुमको बताया है। इस व्रत को करने से बच्चे दीर्घायु होते हैं। हे देवी! तुम भी पूर्वोक्त विधि से यह व्रत और दुर्गाजी का पूजन करो तो तुम्हें अभिलाषित फल प्राप्त होगा। मुनिराज धौम्य की बात सुनकर द्रौपदी के हृदय में एक प्रकार का कौतूहल उत्पन्न हुआ और पुरवासिनी स्त्रियों को बुलाकर उनके साथ यह उत्तम व्रत किया। गौतम ने कहा-यह व्रत और इसके प्रभाव को किसी एक चिह्न ने सुन लिया और अपनी सखी सियारिन को बतलाया। इसके बाद पीपल वृक्ष की शाखा पर बैठकर उस चिह्न ने और उस वृक्ष के खोंते में बैठकर सियारिन ने भी व्रत किया। फिर वही चिह्नी किसी उत्तम ब्राह्मण के मुंह से यह कथा सुन आई और पीपल के खोंते में बैठी हुई अपनी सखी को सुनाया। सियारिन ने आधी कथा सुनी थी कि उसे भूख लग गई और वह उसी समय शव से भरे हुए श्मशान में पहुंची। वहां उसने इच्छा भर मांस का भोजन किया और चिह्नी बिना कुछ खाये-पिए रह गयी और सबेरा हो गया। सबेरे वह गौशाले में गई और वहां गौ का दूध पिया। इस तरह नवमी को उसने पारण किया। कुछ दिनों बाद वे दोनों मर गईं और अयोध्या में किसी धनी व्यापारी के घर में जन्मीं। संयोग से उन दोनों का जन्म एक ही घर में हुआ, जिसमें सियारिन ज्येष्ठ हुई और चिह्न छोटी।

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